एक नए किस्म का झोल है आजकल यात्रा में और वो है - पानी.
पहले
जब ट्रेन सफर होता था या नानी घर का ही सफर होता था तो हम स्टेशन, बस स्टैंड पर
बहते नल या फिर चापनल (Hand Pump) का पानी पी लेते थे और और आत्मा तृप्त हो जाती
थी ठन्डे-मीठे पानी से, सच में. मुंगेर घाट से गंगाजी को जहाज से पार कर जाते थे, इस पार या उस पार घुग्नी-मुढ़ी के दुकानों की रौनक होती थी और हमें भी
नानाजी या मामाजी खिलाते थे. पत्ते में मुढ़ी के ऊपर बिल्कुल गाढ़ी बेसन की ग्रेवी
वाली घुग्नी और उसके ऊपर गर्मागर्म पकौड़े, जिसे यहाँ प्याजू भी बोलते हैं और ऊपर से हरी मिर्च और कटी प्याज. इतने से
भी मन न भरता तो फिर से गर्मागर्म पकौड़े, आलू चोप और कभी-कभी लिट्टी-घुग्नी का भी
दौड़ चलता, जब तक जहाज जाने के लिये तैयार न हो जाता खाते ही जाते. और खाने-पीने के बाद पानी तो
चाहिए ही क्योंकि आँखों में आंसू भर जाते थे मिर्ची से और मिर्ची खाने की आदत थी न
हमारी. तो घाट पर पानी मतलब - गंगा का बहता निर्मल पानी. प्यास बुझाने का एक मात्र यही साधन
होता था. हम भाई बहन थे थोड़े चिकनफट, मतलब साफ-सुथरे रहने वाले और गंदे लोगों को
तो देखते भी न थे. पास बैठने की नौवत आती तो खड़े ही सफर करना मंजूर होता था. ये सब
बचपन की बात बता रहा हूँ.
तो बाल्टी में गन्दा पानी बालू मिला देखकर भाई-बहन माँ
की ओर देखते और माँ तो माँ होती है समझ जाती थी हमारी पीड़ा. फिर प्यार से पुचकारती
और कहती थोड़ा पी लो, सब यहाँ यही पीते हैं. अब जब मिर्ची लगी हो और दोनों कानों से,
नाक से धुआं निकल रहा हो और दोनों आखें आग की भट्टी ही जल रही हो तो फिर तोडा और
ज्यादा क्या. दमभर पीते थे, और हाँ बीमार भी नहीं पड़ते थे, भले पानी कितना भी
गन्दा दिखता हो.
पर
अब वो हालत नहीं, हमने
जमीन के अंदर के पानी को अपने ही हाथों
जहरीला बना डाला और अब यात्रा में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति कम से कम तीन लीटर बोतल
बंद पानी खरीदते ही हैं, जो प्लास्टिक की बोतलों में बंद होता है. सच
कहूँ, ये बोतलबंद पानी जिसे आप बड़े शान से खरीदकर पी रहे हैं, ज्यादातर पीने लायक
ही नहीं है. अब पानी का स्टैण्डर्ड क्या है, नहीं है वो मामला छोड़ भी दें और ये
मान ले कि सभी उच्च स्तरों के हैं तो भी ये बोतलें कहाँ - कहाँ पड़ी और पटकी गई,
वो जगहें क्या
हैजेनिक थी? कुत्ते इन बोतलों पर
चढ़कर कई बार मूत चुके होते हैं, जिसमें हम और आप मुहँ लगाकर पीते हैं. पानी की बोतले खुली जगहों पर कई दिनों
तक डायरेक्ट तेज धुप में पड़ी रहती हैं, जहाँ बोतल के प्लास्टिक के साथ पानी का क्या
रिएक्शन हुआ? ये तो कोई विज्ञानी ही बता पायेगा, पर मुझे जहाँ तक समझ आता है जाहिर
है ये प्लास्टिक गुलाबजल या शरबत तो न ही घोल रहा होगा पानी में. तो पैसे देकर शान से जहर ही ले रहे हैं, और प्रदुषण अलग फैला रहे हैं. जिसका परिणाम
हमारे ही विनाश से होना है, जाहिर सी बात है.
तो समाधान क्या है?
पिछले
कई यात्राओं से हमने बोतल बंद पानी लेना लगभग छोड़ दिया है. इस वर्ष जिंतनी भी
यात्रायें हुई परिवार के साथ सबमें हमने घर से पानी ढोया, होटल के RO का पानी पिया, (वैसे RO भी मेरे लिये संदेह के घेरे में ही है). जिधर भी निकलना
हुआ हमने एक-दो लीटर पानी बैग में रखा और उसे ही इस्तेमाल किया. यहाँ तक की नन्हें
बच्चों के बैग में भी छोटी बोतल में पानी भर कर उसके कंधे पर टांग दिया, ताकी अपने हिस्से का पानी वो खुद ढोए.
जहां कहीं भी RO या
फिल्टर नजर आया उससे बोतल को फिर से भरा. मतलब पानी के खाली बोतल को जिसे आप एक
बार पीकर शान से स्टेशन और सड़क पर उछाल देते हो न, उस बोतल की जान निकाल दी हमने भर-भर
कर. हाँ आपकी तक स्टेशन और सड़क पर उसे उछालने का मजा न मिला मुझे, यही मिस किया.
और मिस किया प्रदुषण फ़ैलाने में अपना योगदान. वैसे तो देखा जाये तो हम मानव
भस्मासुर के खानदानी हैं, अब वो किससे रिश्ते में फूफा लगता और किसके रिश्ते में ताऊ
ये तो पता नहीं, पर हैं सबके सब भस्मासुर की औलादें इसमें कोई दो राय हो ही नहीं
सकती. खुद का नाश करने के लिये नित नए खोज करते रहते हैं.
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वैसे
तो हमारा परिवार पंच-प्यारे का है और सबके सब घुमक्कड़ है. आज तक मेरी शायद ही
कोई आउटिंग परिवार के बिना हुई या फिर इनलोगों ने होने ही न दी. साल में पांच - छः - सात यात्रायें हो जाती है परिवार
सहित, अब आप सोचिये अगर थोड़ा का पानी ढो लें तो कितने बोतलों की बलि होने से बचा
सकते हैं. अगर जरूरत से ज्यादा हेल्थ के प्रति जागरूक हैं तो फिर यह बोतल भी एक
उपाय है, पर्यावरण बचाने में अपने योगदान के लिये. अभी तो एक बोतल ही ली है, इसकी
सफलता के बाद फिर आगे की रणनीति बनेगी कि यह सबके बैग में जाने लायक है या नहीं....