Tuesday, December 11, 2018

चिलचिलाती ठण्ड और रेलवे की कुल्फी

लगभग एक घंटे की यात्रा परिवार और बच्चों के साथ स्लीपर कोच में कर रहा हूँ. भारतीय रेलवे के स्लीपर कोच की सबसे बड़ी समस्या जाड़े में और बरसात में जो मुझे लगती है वो है ट्रेन की खिड़कियों का ठीक से न बंद होना और न खुलना. बच्चे खिड़की पर हाथ रख बाहर का नजारा लेना चाहते हैं, पर डर लगा रहता कब शटर गिर पड़े. कई बार गिरते शटर से लोगों को घायल होते भी खुब देखा है.

आज की हमारी समस्या यह है कि शटर बंद नहीं हो रहे, ट्रेन के हिलने - डूलने के कारण पाँच मिनट में ही खिड़की खुद व खुद खुल जाते हैं. मतलब ऑटोमैटिक वातानुकूलन कर रहे दे रहें हैं कोच का. अब अन्दर बैठे लोग जो पहले से दुबके बैठे हैं, अपने हाथ को दोनों पैरों के बीच दबाए ठंड से बचने को वो ऑटोमैटिक वातानुकूलित हो रहे हैं. मेरी परेशानी तो एक घंटे की है. पर इस चिलचिलाती ठंड में जो भी यात्री नीचे के सीट पर पूरी रात यात्रा करेंगे, उनका कुल्फी जमना तय है. मतलब स्लीपर कोच में यात्रा करने के लिए कम्बल नहीं रजाई लेकर जाना पड़ेगा या फिर एक बढ़िया स्लीपिंग बैग. जिसमें घुस दुबका जा सके और कुल्फी होने से बचे.

वैसे हमारे यहाँ फिर भी थोड़ी राहत रहती है, क्योंकि ट्रेन में हमेशा ही सीट से ज्यादा यात्री होते हैं, जो कोच को ऑटोमैटिक वातानुकूलित होने से गर्मी देकर बचाए रखने में सहायक होते हैं.

बस यूँ ही

Wednesday, November 28, 2018

जाड़े की ठण्ड और तन नंगा

एक मार्मिक अपील 


गंगा जी के दर्शन किसी न किसी बहाने हो रहा है, कृपा बनी रहे गंगा माँ.

बच्चों की पिछले सर्दी की कई गरम कपड़े छोटे हो गए जो हमारे काम के नहीं थे. एक थैले में डाल लेकर चले गंगा के तट पर, वापस आते हुए ठंड में एक छोटा बच्चा बिना कपड़े के नजर आया अपनी माँ के साथ सड़क पर बैठा, घर के बाहर. बेटे को बोला पूरा थैला ही दे दो. उसने बड़े प्यार से बोला - "अंटी हमारा कपड़ा है, छोटा हो गया बाबू के लिए रख लीजिए"

बेचारी गरीब माँ सिर्फ मुंह देखती रह गई और हम चल दिए.

दिल रोता है ऐसी गरीबी देखकर.
ऐसे कपडे हम सबके घरों में पड़े होते हैं, जिनका हम इस्तेमाल नहीं करते या जो बच्चों को छोटे हो जाते हैं. सोचिए जरा, अगर यही कपडे साफ कर हम किसी जरूरतमंद को दे दें तो हम किसी गरीब की जान और मान बचाने में मदद करेंगे. पर हम करते क्या हैं, ऐसे कपडे हमारे - आपके घरों में पोछा बन जाता है या ऐसे ही कूडेदान में डाल देते हैं |
आइये सब मिलकर सोचे, उनके लिए जो लाचार हैं.




ऐसे कपड़ों को एक निश्चित जगह रखा जा सकता है, जहाँ से जरूरतमंद लोग इसे ले जा सकें. 

Friday, November 9, 2018

मनुष्य का पशु रूप

"भर्तृहरि नीति शतक" से सादर समर्पित :
साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥

हिन्दी में अनुवाद :
साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात पूंछ और सींघ रहित पशु के समान है। और ये पशुओं की खुद्किस्मती है की वो उनकी तरह घास नहीं खाता।

Meaning in English :
A person destitute of literature, music or the arts is as good as an animal without a trail or horns. It is the good fortunes of the animals that he doesn't eat grass like them.

Wednesday, November 7, 2018

दीपावली और प्रदूषण - एक साजिश

दीपावली और प्रदूषण - एक साजिश  


किसने इन गधों को वैज्ञानिक और अनुसंधान करने की योग्यता की डिग्रीयां दी? जैसे मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री कहलाने के लायक नहीं थे, उसी श्रेणी के ये गधे वैज्ञानिक और खानग्रेसी पर्यावरणविद  दीपावली से प्रदूषण होता है का हंगामा खड़ा किये हैं पिछले कुछ सालों से। क्रिसमस और नव वर्ष के उपलक्ष में भी उच्च वर्गो द्वारा जमकर आतिसबाजी की जाती है, लेकिन वो आतिसबाजी में प्रयुक्त पटाखे बिलकुल प्राकृतिक और हवन सामग्रियों से बनाया जाता है, जिससे वातावरण शुद्धि होती है।

गधे वैज्ञानिक, मुल्ले मीलॉर्ड और खानग्रेसी पर्यावरणविदों अब बताओ ये दीपावली के दो दिन पहले वायु प्रदूषण 20 गुणा कैसे बढ़ गई दिल्ली में ??? क्या तेरे बाप - नाना - दादा स्वर्ग में आतिसबाजी कर रहें हैं जिसका प्रदूषण दिल्ली तक पहुंच गई???

इन गधों को यही समझ नहीं आता यह समय गर्मी और सर्दियों के बीच का है, जिसमें वायु घनीभूत हो रही है, गंदी हवा को नीचे से ऊपर जाने से रोक रही है। जिसके कारण कोहरे जैसा दिख रहा है और वायु प्रदूषित हो रहा है। यह कोई नई बात नहीं है, हर वर्ष ये सिलसिला चलता आया है और 100% पटाखे चलाने पर प्रतिबंध लगा देने के बाद भी ऐसे ही चलता रहेगा।

हिन्दुओं को भेड़ - बकरी समझने वाले लोग जब तक अपने कुंद मानसिकता और धर्म की राजनीति से बाहर आकर नहीं सोचेंगे तब तक ऐसे ही जोकरों की तरह मसखरी करेंगें टेलीविजन पर बैठ कर कर प्रदूषण पटाखों से बढ़ता है और अपने को बड़ा समझदार समझने वाले लोग चाय दुकान फेसबुक और ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया पर बैठ ज्ञान पेलेंगे।

Tuesday, November 6, 2018

दीपावली के बहाने - "हम किस गली जा रहे हैं"

दीये और बाती


दीपावली पर कब दीपक की जगह मोमबत्ती ने ले लिया हमें पता ही नहीं चला। पर पिछले कई सालों से हमने यह गलती सुधारी और वापस देशी बन गया और हम पारंपरिक दीये की दीपावली मनाने लगे, क्योंकि यह त्योहार कोई कैंडलावली तो है नहीं जो हम कैंडल जलाए और न ही अभी मैंने अपना धर्म बदल कर क्रिस्चन होने के बारे कुछ सोचा है।

दीपावली के दीये, पूजन सामग्री आदि - आदि की खरीद माताश्री ने की तो माताश्री बाजार में कैसे क्या हुआ बता रही थी और समाचार पत्र देख रहीं थी। मैं वही बैठा था तो मेरी नजर समाचार पत्र पर एक जगह जाकर अटक गई। प्रसंग वही था जो हमारे और माताश्री के बीच वार्तालाप का विषय था - दीये बेचने वाले गरीब की दीपावली में स्थिति । समाचार और माताश्री के बात का निचोड़ -

पिछले चार दिनों से मिट्टी के दीपक बेचने वाले गरीब की दीपावली के दो दिन पहले हालत ये  थी कि बेचारे ने 100 रुपये में 100 दीये के मूल्य पर 400 रुपये की भी बिक्री नहीं की। जबकि वही बगल में मोमबत्ती बेचने वाले सेठजी के पास भीड़ उमड़ी पड़ी थी। उस दीये वाले गरीब के छोटे - छोटे बच्चे नए कपड़े की जिद कर रहे हैं इस दीपावली, जो कि मुश्किल से सभ्‍य लोगों के टेबल की शोभा छोटे पिज्जा के मूल्य पर ही हो जाएंगे, पर हाय रे तेरी किस्मत!

पत्रकार महोदय को गरीब दीयेवाले की बताते बताते आँखे छलछला आई -

 "बच्चबन के एकगो नया कपड़ों और दुई गो लड्डू न दिलाभे पारिबे अबकी लागै छै ।"

यह है हमारे दीपावली मनाने का तरीका। सेठ और माल से मोमबत्ती खरीद लेंगे, 1000 से 2000 रुपये किलो की मिठाई, चाइना के झालर 2000 - 4000 रुपये के घर के बाहर टाँग देंगे, वो भी बिंदास सीना ठोकर की हम तो चाइनीज ही लगाएंगे। पटाखे को कोई कैसे भूल सकता है, इसके बिना तो लगेगा ही नहीं कि हम हिन्दु हैं तो हिन्दू सिद्ध करने के लिये मात्र 5000 रुपल्ली क्या चीज है भई  

पर वो गरीब जो महीनों से अपने बच्चो को नए कपड़े और मात्र दो अदद लड्डू देने का वादा भी पूरा न हो पाने के सदमे में दिल से रो रहा है, याद रखो उसकी हाय भी दीपावली के मंगलमय वातावरण में हमारे ही आसपास मंडराने वाली है और दीपावली में आपके घर लक्ष्मीजी आये या न आये, पर ये गरीब की हाय तो कही दूसरे ग्रह नहीं पर नहीं जाने वाली।

वैसे हमने या आपने क्या इनका ठेका ले रखा है, अपनी-अपनी किस्मत है। मरने दो इनको इनके हाल पर।

Let's Start Our Party. Wish You a Very Happy & Prosperous Deepawali. 

गरीब तेरी यही कहानी,
दिल में दर्द और आंखों में पानी।

Wednesday, August 29, 2018

केश कर्तनालय गाथा

आज दफ्तर का साप्ताहिक अवकाश का दिन है, ये इसलिये बता रहा हूँ कि इस प्राणी का रविवार नहीं होता | अभी बिस्तर पर निद्रा देवी की आगोस से अलसाया उठा ही था और मदहोशी छाई हुई ही थी कि सुबह-सुबह बेटे ने गुसलखाने में घुसने के पहले ही तुगलकी फरमान सुना दिया –
आज पापा मुझे स्कूल बस में छोड़ने जायेंगे, नहीं तो मैं स्कूल नहीं जाऊंगा|

छुट्टी का दिन मतलब एक दिन की बेरोजगारी | श्रीमतीजी ने भी मुस्कराते हुए कहा छोड़ आइये ना आप ही | बेचारा शादी-शुदा निरीह-सा आदमी नामक प्राणी कर भी कर सकता है इस परिस्थिति में | मैं भी घुस गया जल्दी से दूसरे गुसलखाने में, आखिर बस स्टैंड पर छोड़ने जाने के पहले नित्य-क्रिया से निवृत होने के साथ थोबड़े को थोड़ा दुरुस्त तो करना ही था | बेटे के तैयार होते-होते मैं भी तैयार होकर अपनी फटफटिया निकाली और नखरिले नटखट को बस स्टैंड छोड़ आया |

घर वापसी के पहले अपने हवाओं में लहराते टेढ़े-मेढे जुल्फों को थोड़ा रास्ते पर लाने के लिए केश कर्तनालय का रुख किया | अपने पसंदीदी केश कर्तनालय में घुसने के पहले बता दूँ, ये है तो छोटा सा केश कर्तनालय पर नये-नवेले लौंडों की भीड़ मधुमक्खी के छत्तें की तरह लगी रहती है | कारण... कारण ये है कि राजा जो इस केश कर्तनालय के संचालक हैं के साथ में जादू है | आपको चाहे किसी भी फ़िल्मी हस्ती के घोसले को अपने खोपड़ी पर बनवानी हो या खोपड़ी को आजकल की नई चलन के हिसाब से आधी सफाचट, आधी घोसले में तब्दील करवानी हो, सब करता है ये राजा भाई और वो भी बिना जेब काटे | मैं इतना क्यों बता रहा हूँ इस केश कर्तनालय के बारे में, कहीं ये कोई प्रोमोशनल या स्पोंसर्ड पोस्ट तो नहीं???

अरे नहीं भाई, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं, असल में यही तो मेरे दुःख का कारण हैं | मैं अपनी जुल्फों की कटाई- छंटाई तब तक टालता रहता हूँ, जब तक मेरी शक्ल भालु जैसी नहीं हो जाती | इसका कारण है केश कर्तनालय में जमी मधुमक्खी के छत्तें सी भीड़, जिसके कारण अपनी पारी के इंतजार में दो-दो घंटे बिताने पड़ते हैं | और आज तो छोटे नवाब की भी जुल्फों को सवारना था, जो भालू जैसी हुई नहीं थी पर अगले साप्ताहिक अवकाश तक हो ही जाने वाली थी | मतलब आज ढाई-तीन घंटे का सत्यानाश वो भी उस साप्ताहिक अवकाश वाले दिन जो पन्द्रह दिनों  बाद मिल रही हो | खैर किया क्या जाये, कहीं और जाने से संतुष्टि भी नहीं मिलती | लेकिन जैसे ही अपनी फटफटिया बाहर खड़ी कर अन्दर गया तो पता चला कि आज भीड़ नहीं है और एक, जिनकी लहलहाती हरी-भरी जुल्फों की बगिया को बेरहमी से रेगिस्तान बनाया जा रहा था के बाद मेरे ही खोपड़ी पर कैची और उस्तुरा वाला हाथ फिरने वाला था | खैर, लगभग पन्द्रह मिनट में अपनी बारी आ गई और अपनी जुल्फों की कटाई-छंटाई, खाद-पानी का काम इतनी जल्दी निपट जाने से मन ही मन खुश भी था |

अब आप कहेंगे बेकार ही इतना चिल-पो कर रहा हूँ और एक फालतु पोस्ट भी लिख डाला | रुकिए ... रुकिए मेरा दुःख अभी समाप्त नहीं हुआ | छोटे नवाब को छुट्टी के बाद लेकर जब दोपहर में वापस उसी केश कर्तनालय पहुँचा तो पता चला कि पांच-छः लौंडे जमें हैं पहले से | मतलब कम-से-कम ढाई-तीन घंटे तो लगने ही थे | फिर सोचा नहीं इतना समय नहीं दे सकता तो चल पड़ा दूसरे केश कर्तनालय की ओर जो पास में ही था | वहाँ भी चार लोग जमें थे तो फिर तीसरी केश कर्तनालय में चला गया | हाँ, यहाँ भीड़ नहीं थी, सुबह जैसे मुझे संयोग से ऐसा मिल गया था मेरे पसंदीदा केश कर्तनालय में सिर्फ एक | कुछ ही देर में छोटे नवाब ठाठ से बैठ अपना केश बनवा रहे थे और मैं बैठा सोच रहा था क्या हम पुरुष अपनी केश की थोड़ी-मोडी कटाई-छंटाई खुद से घर पर नहीं कर सकते क्या ??? कुछ तो जुगत लगानी पड़ेगी, अब इतने समय की बर्बादी मैं केश कर्तनालय में फालतु बैठकर तो नहीं कर सकता | 

जो रास्ते मुझे सूझ रहें हैं वो ये हैं :

१. पहला बात जो मेरे कुराफाती खोपड़ी में आ रही थी वो थी अपनी केश-सज्जा या कटाई-छंटाई खुद करना | अब वो बाद में कैसा दिखता हैं, ये देखने वाली बात होगी | लेकिन ये होगा कैसे ??? देखता हूँ, शायद कोई मिल जाये जुगत बताने वाला |


२. अपनी लहलहाती हरी-भरी जुल्फों की बगिया को, भले ही थोडा 
रेगिस्तानी इलाका भी है, बेरहमी से रेगिस्तान बना डालूं और उसे जैसे दाढ़ी बनाता हूँ वैसे ही क्रीम पोतकर चिकनाता रहूँ | केश कर्तनालय का जिन्दगी भर का झंझट ही खत्म |

३. जैसा चल रहा है वैसा चलने दूँ, बस कोई टुटपुंजिया-सा केश कर्तनालय की खोज कर लूँ ताकि अधिक समय बर्बाद ना करना पड़े | अब वो चाहे कैसा भी शक्ल बना दे, समय तो बचेगा |

यही थी मेरी बड़ी परेशानी, मेरी समस्या |

Tuesday, July 17, 2018

हम कितने जिम्मेदार हैं???

गंगटोक से लगभग 55 किमी० की दूरी और  १३८०० फीट की उचाई पर अवस्थित है बाबा हरभजनसिंह मंदिर जो कि छंगू लेक से लगभग १६ किलोमीटर की दूरी पर है इस मन्दिर की संक्षिप्त कहानी मैं दूसरे पोस्ट में शेयर करूँगा । ये पुरा परिशर आर्मी के द्वारा संचालित होता है यहाँ तक की इतनी उंचाई होने के बाद भी आगंतुकों के लिये आर्मी कैफेटेरिया भी चलाती हैजहाँ की चायसूपबिस्किट्सकेकनमकीन आदि उपलब्ध है बिल्कुल ही सिक्किम के मूल्य पर पर हम इसका क्या हस्र करते हैं ये नजारा इसका एक दुखद उदाहरण है |

ये नज़ारा मेरे लिये इस यात्रा का सबसे दुखद पहलु लिये है लोगों ने ये नजारा तब बनाया है जबकि कैफेटेरिया के अन्दर ही हर कोने में कचरे का डब्बा रक्खा था |

स्वछता को इश्वर का प्रतिक माना गया है भारतीय संस्कृति मेंक्या पहाड़ों और वादिओं में इस तरह का ओछापन और मानसिक दिवालियापन शोभा देता हैहमलोग इस कैफेटेरिया में लगभग ३० मिनट रुके और सूपबिस्किट्सकेक आदि खाकर अपनी थकान और भुख मिटाई इस ३० मिनट में जवानों ने दो बार टेबल साफ की लेकिन १५ मिनट में फिर से हालात वहीये पिक्चर मैं सफाई के १० मिनट के बाद ली है मैंने खुद अपने बगल में बैठे कुछ बंगाली जोड़े को ऐसा करने से मना कियालेकिन सुनता कौन हैं |

ये है हमारा सभ्य और संभ्रांत समाज। शर्म आनी चाहिये ऐसे घूमने वालों को जो जो कम से कम इन्सान कहलाने के लायक तो नहीं। अब आप इसे क्या कहेंगेआप खुद सोचें। मैंने जब कुछ लोगों को मना किया तो एक जोड़े ने मुझे सपाट शब्दों में कह दिया "Mind your business".




Thursday, July 12, 2018

"यायावर एक ट्रेवलर" फिर नई शुरुआत

किसी ने क्या खुब कहा है -
"मंजिल मिल ही जायेगी भटकते ही सही,
गुमराह तो वो हैं जो घर से निकलते ही नहीं ."

सैर पर जाना या घुमक्कड़ी हर किसी किस्मत में नहीं. बिरले ही इस सौगात से नवाजे गये हैं. मुझे तो लगता है अगर एक सालमात्र एक साल कहीं यात्रा ना करूँ, तो मानसिक संतुलन ही खो दूँगा. जाने लोग पूरी जिंदगी बिना यात्रातीर्थाटन और सैर-सपाटे के कैसे बिता देते हैं. 

मस्तिष्क को चिंतनशील और क्रियाशील बनाने के लिये यात्रा करना बहुत जरुरी है. यात्रा करने से चूँकि वातावरण परिवर्तन हो जाता हैइसलिए मनुष्य के मन और मस्तिष्क में नवीनता आ जाती है. आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिये यात्रा एक महत्वपूर्ण साधन है. जो लोग दब्बू और संकुचित मानसिकता वाले हैंऐसे लोगों के लिये सैर-सपाटा एक अच्छा माध्यम हो सकता है आत्मनिर्भर बनने का.

यात्रा के जैसा कोई दूसरा सीखने और अनुभव करने का तरीका नहीं है. यात्रा आपको अपने क्षितिज विस्तृत करने और सीखने का नया आयाम प्रदान करता है. यात्रा आपको नई चीजेंनए भोजननए जगहोंभिन्न - भिन्न लोगों और नई संस्कृतियों को समझनेमहसूस करने की अभूतपूर्व अवसर प्रदान करता है. आप यात्रा में हवा में हों या सड़क पर हैंहर दिन नए अनुभवों के साथ आने वाली चुनौती से निपटते हैं.

निकले थे इस आस पे किसी को बना लेंगे अपना,
एक ख़्वाइश ने उम्र भर का मुसाफिर बना दिया.

पर्यटन को दुनिया का सबसे बेहतर इन्वेस्टमेंट कहा गया हैक्यूँकि ये इनवेस्टमेंट आप अपने आप में करते हैं.

World best investment advice:
"Investment in Travel is an Investment in Yourself."
~Matthew Karsten

इस भाग-दौर भरी जिन्दगी में अपनी यात्राओं (घुमक्कडी) के लिए जो भी थोड़ा समय निकाल पाता हूँ, उसके जुड़े अनुभवों को शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रहा हूँ. इसका एकमात्र मकसद सिर्फ अपने लिए ट्रेवल डायरी और आपके लिए जानकारी को एक जगह लाने का प्रयास मात्र है. मैं कोई लेखक नहीं, पिताश्री के बाद ना ही कोई मार्गदर्शक बचा. जो भी टूटी-फूटी भाषा आती हैं, बस लिख रहा हूँ. ना मुझे हिन्दी का बहुत अच्छा ज्ञान हैं और ना व्याकरण का. गलतियाँ तो होंगीं. सुझाव देने का कष्ट करेंगे, तो शायद सुधार पाऊं. "यायावर एक ट्रेवलर" पर आप मेरी यात्रा संस्मरण को पढ़ सकते हैं.

Friday, June 8, 2018

गावों का विकास

गावों का विकास

एक लंबे अर्से बाद  ननिहाल जाना पड़ा बीमार मामू को देखने के लिये। पूर्णियां से लगभग 45 किलोमीटर दूर  के गाँव में। यह लंबा अर्सा कुछ ज़्यादा ही लंबा है, लगभग 21 - 22 साल। नाना - नानी के स्वर्गवासी होने के बाद से कभी मेरा आना नहीं हुआ। 21 - 22 साल पहले यहां आने के लिये, बनमनखी से कोई सड़क नहीं थी, लोग 6-7 किलोमीटर नहर के किनारे पगडण्डी पर चलकर जाते थे या बैलगाड़ी थी वो भी चंद लोगों के पास। यही एक मात्र साधन था आने - जाने का। पर बिहार के विकास ने इस गाँव को भी नहीं छोड़ा और अब यहाँ भी बिजली, सड़क, दुकानें सब कुछ है, दुकाने पहले भी थी, पर सिर्फ छोटी - मोटी जरूरत का सामान और खाने पीने का सामान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता था, पर अब मोबाइल, सीमेंट, बालू, हार्डवेयर, सब्जी, मिठाई, जूस, चाय सब कुछ है। गाँव से सीधी बस सेवा पूर्णियां और कटिहार के लिये दिनभर और बनमनखी के लिये ऑटो भी चलती है। ये तो बस थोड़ा परिचय था ताकि मेरी बात समझने में आसानी हो।

अब आइये सीधी बात पर। मुझे 21 - 22 साल बाद आने के बाद जो बदलाव दिखाई दिया उससे आपको पहले ही अवगत करा दिया, बिजली, सड़क, दुकानें सब कुछ है, अब यहाँ। दो दिन बिताने के बाद जो सबसे बड़ा विकास मुझे दिखाई दिया, वो असल विकास न होकर गाँव का पतन था। अब आप कहेंगे की विकास तो दिख रहा है।  हाँ जनाब, विकास तो दिख रहा है, पर लोगों का जीवन शैली वही है, पर दिखावा बढ़ गया। सरकार ने इंदिरा आवास योजना के तहत घर बनाने के लिये पैसे दिये, पर लाभान्वित और दलालों की नीयत साफ नहीं होने की वजह से दोनों ने मिल बाँट खाया, और जिंदगी वही 21 - 22 साल पहले वाले झोपड़ी में बीता रहें हैं, ये अलग बात है कि झोपड़ी में गैस चूल्हा, टीवी, मोटर बाइक सब है।

अब आइये गाँव के असली विकास पर नज़र डालें। सड़क और आनेजाने की सुविधाएं बढ़ गयी, जिसका असर ये हुआ कि शहर की बुराई ने यहाँ अपना पाँव फैलाया। बिहार में नीतीश जी ने शराबबन्दी कर रखी है, पर क्या कभी मुख्यमंत्री महोदय ने खुद पड़ताल करने की कोशिस की, शराबबन्दी असल में है भी या सिर्फ़ एक शिगूफा है शराबबन्दी? पूरा गाँव शराब (महुआ) के गिरफ्त में है। क्या गाँव के धनाढ्य, क्या निर्धन। जो भी मिला, दिन या दोपहर, शाम या रात भरपूर कोटे के साथ, नशे में धुत। गाँव में लोग इसकी वजह से अपना सेहद के साथ परिवार का सत्यानाश कर रहें है।

21 - 22 साल के बाद मेरे आगमन के वजह से जो मिला उसने पूछा क्या बदलाव नज़र आया। मुझे तो बस लोगों का पतन ही दिखाई दिया, विनाश ही चहुओर नज़र आया। जो भी रोजगार के अवसर बढ़ने से आमदनी बढ़ी, वो सब शराब की भट्टी, प्यासी और अतृप्त आत्मा की तरह पी रही है। यही है बिहार के असली विकास की कहानी और शराबबन्दी का असली सच। 

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